मंगलवार, 28 सितंबर 2010

                                                  ग्रामीणों ने किया काव्यरस का रसास्वादन              
                                                                                   दिनांक : १३ जून २०१०
                                                                      स्थान : ग्राम झमझमपुर, शिकोहाबाद  

काव्य रसधारा को ग्रामीणों के बीच ‘ग्रामीण कृषक कवि सम्मेलन’ के माध्यम से प्रवाहित किया गया। इस कवि सम्मेलन का आयोजन शिकोहाबाद क्षेत्र के ग्राम झमझमपुर के श्री हनुमान मन्दिर मे किया गया। मुख्य अतिथि पूर्व सांसद श्री उदयप्रताप सिंह की गरिमामयी उपस्थिति में यह कार्यक्रम बहुत ही सफल रहा।

कार्यक्रम का शुभारम्भ सुश्री व्यंजना शुक्ला द्वारा सरस्वती वंदना ‘वीणा के तार बजाती नहीं तुम’ से हुआ। कवि श्री कुंवरपाल सिंह ‘भ्रमर’ ने गणेश वन्दना, भ्रूण हत्या एवं परिवार नियोजन पर अपनी हस्ताक्षर कविताओं का पाठन किया। कवि बदन सिंह ‘मस्ताना’ ने अपनी कविता ‘बूढ़े विश्वामित्रों का आशीष जरूरी है’ तथा किसानों एवं गांव पर अपनी शिखर कविता "शहरों की तुलना में आज भी लगते हमको गांव सुहाने" एवं मैनपुरी से पधारे कवि सुरेश चौहान ‘नीरव’ ने अपनी कविता ‘मोहे नौकरिया शहर की न भावै पिया अपने गांव चले आवौ’ एवं ‘अब बदल गये हैं गांव मेरे’ पढ़ श्रोताओं को गांव की बदलती हुई तस्वीर दिखाई।

बेवर के ग्रामीण हास्य कवि मुन्नालाल ‘सौरभ’ ने अपनी कविता ‘मोबाइल’, ‘गुइयां तुम्हें गांव घुमाऊँ एवं पर्यावरण पर अपनी कविता ‘उजड़ रही है भूमि आज चारों ओर सब वन बाग सब भारी पेड़ कटवाये हैं" पढ़ श्रोताओं की खूब वाहवाही लूटी। तत्पश्चात्‌ कार्यक्रम कवियत्री सुश्री व्यंजना शुक्ला ने देश पर अपनी कविता ‘हमारा देश अब कितना पतन की ओर जायेगा?" के माध्यम से उपस्थित श्रोताओं को चिन्तन करने के लिए प्रेरित किया।

कार्यक्रम का संचालन कर रहे डा. धुर्वेन्द्र भदौरिया ने भी विशेष आग्रह पर अपनी स्वास्थ्य सम्बन्धी रचना ‘जियो जगत के हित सदा, सकारात्मक सोच’, वरिष्ठ कवि एवं सांसद ओमपाल सिंह ‘निडर’ ने पर्यावरण पर अपनी रचना ‘पर्यावरण से करोगे यदि खिलवाड़ तो कहीं पै बाढ़, कहीं सूखा पड़ जायेगा’ पढ़ ग्रामीणों को पर्यावरण संरक्षण व वृक्षारोपण का संदेश दिया। अन्त में कार्यक्रम के मुख्य अतिथि वरिष्ठ कवि, पूर्व सांसद व शब्दम्‌ उपाध्यक्ष श्री उदय प्रताप सिंह ने अपनी रचना ‘ऐसे नहीं संभलकर बैठो, तुम हो पहरेदार वतन के’ का पाठ किया।
                                                      
                                                 नुक्कड़ नाटक श्रृंखला : बेटी आई है
                                                                                           दिनांक : २६-२८ फरवरी,  २०१०                           
                                             संयोजन : श ब्दम एवं स्त्री मुक्ति संगठन, मुम्बई
                                                 स्थान : शिकोहाबाद, सिरसागंज व बटेश्वर

नाटक में समाज में स्त्रियों के प्रति व्याप्त अन्याय, शोषण और दहेज आदि कुरीतियों पर नृत्य, संगीत एवं व्यंग्य की विधाओं के माध्यम से करारा प्रहार किया। इनके अभियान का उद्देश्य समाज में स्त्रियों की दशा सुधारना तथा समान अधिकार दिलाना है। क्योंकि आज इतनी प्रगति कर लेने के बाद भी हमारे समाज में कन्या से ज्यादा पुत्र के जन्म पर खुशी मनाई जाती है, हर घर में यही कामना की जाती है कि पुत्रा की ही प्राप्ति हो। यह अपने कार्यक्रम से समाज की यह सोच को बदलने का प्रयास कर रहे हैं कि आज स्त्री पुरुष से किसी भी क्षेत्र में कम नहीं है तो उसे समाज में पुरुषों के समान स्वतंत्रता व अधिकार मिलने चाहिए।

स्त्री मुक्ति संगठन सुश्री ज्योति म्हापसेकर के निर्देशन में संचालित कामकाजी महिलाओं व पुरुषों का संगठन है जो कि अपने निजी जीवन के दायित्वों के निर्वहन के साथ-साथ समाज सुधाज के कार्य में भी लगे हैं। स्त्री मुक्ति संगठन अभी तक पूरे भारतवर्ष में दो हजार से अधिक नाटकों की प्रस्तुतियाँ दे चुका है।

शब्दम एवं स्त्री मुक्ति संगठन, मुम्बई के संयुक्त तत्वाव्धान में आयोजित ‘नुक्कड़ नाटक श्रृंखला : बेटी आई है’ का मंचन शिकोहाबाद नगर के स्टाफ क्लब, ज्ञानदीप पब्लिक सी.सेके. स्कूल, यंग स्कॉलर्स एकेडमी व सिरसागंज के इंदिरा मेमोरियल पब्लिक स्कूल, ब्राइट स्कॉलर्स एकेडमी एवं बटेश्वर में किया गया।

शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

हिन्दी के प्रति हीन भावना ही हिन्दी के उत्थान में समस्या : किरण बजाज

मैं उन सभी देशवासियों और हिन्दी भाषियों को प्रणाम करती हूँ जो हिन्दी की गरिमा को बनाये रखने में अपना अमूल्य योगदान दे रहे हैं। मेरे विचार में देश की महत्ता और प्रगति उसके भौगोलिक क्षेत्र पर नहीं बल्कि उसकी प्रकृति और संस्कृति पर निर्भर करती है। भाषा संस्कृति का ही एक रूप है।
हिन्दी की सम्पन्नता का अन्दाजा तो इसी से लगाया जा सकता है कि भारत में २८ राज्य हैं और सभी राज्यों की अलग-अलग भाषा व बोलियाँ हैं लेकिन सब भाषाओं का आधार हिन्दी है। हिन्दी पूरे भारतवर्ष को जोड़ती है। हिन्दी भाषा की ग्राह्यता इतनी है कि उसमें अन्य भाषाओं यथा - उर्दू, अंग्रेजी, अरबी, फ़ारसी आदि भाषाओं के शब्द होने के बाद भी वह इस तरह इसमें जुड़ गये हैं कि वह हिन्दी भाषा के ही लगते हैं तो हम कैसे कह सकते हैं कि हमारी भाषा समृद्ध नहीं है?
मैं मानती हूँ कि अंग्रेजी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सम्प्रेषण के लिये उपयुक्त भाषा है। इसके लिये आप अंग्रेजी सीखें लेकिन हिन्दी को अपने व्यवहार, बोलचाल अथवा जीवौ से अलग न करें। हिन्दी भाषा के लिये सबसे बड़ी समस्या है अंग्रेजी सीखने की लोलुपता और हिन्दी के प्रति उदासीनता एवं हीन भावना। हिन्दी हमें हमारी संस्कृति और देश्प्रेम का बोध कराती है। इसका एक उदाहरण यह है कि यदि हम अमेरिका या कनाडा जायें और वहाँ काफी समय बिताने के बाद जब भी कोई हिन्दी भाषी मिल जाता है तो हृदय गदगद हो जाता है। जानते हैं ऐसा क्यों होता है? क्योंकि हिन्दी आपको आपकी भारतीयता की याद दिलाता है, हिन्दी से हमारा जुड़ाव आत्मा से है।
लेकिन जब हमारे भारत में ही हिन्दी का विरोध होता है, हिन्दी का तिरस्कार होता है, उसकी उपेक्षा होती है तो बहुत पीड़ा होती है। हम हिन्दी का विरोध करते हैं जो कि हमारी है तो अंग्रेजी का विरोध क्यों नहीं करते? क्या कोई बच्चा अपनी माँ को छोड़कर दूसरे की माँ की गोद में बैठता है? भले ही उसकी माँ काली, मोटी या कुरूप हो? तो फिर हम ये मूर्खता क्यों कर रहे हैं?
आज हर व्यक्ति अपने बच्चे को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ाना चाहता है और विद्यालयों में भी सभी विषय अंग्रेजी में ही पढ़ाये जाते हैं लेकिन आज के स्कूलों में शिक्षा का स्तर इतना गिर गया है कि वह स्कूल तो अंग्रेजी माध्यम के खोले जाते हैं और उनकी प्रधानाचार्या ही अंग्रेजी नहीं बोल सकतीं, ये कितना हास्यास्पद है। जो विषय हम अपनी भाषा में पढ़ सकते हैं उसे दूसरी भाषा में क्यों पढ़ें? आज गणित व आयुर्वेद भी लोग अंग्रेजी भाषा में सीखते हैं जबकि गणित और आयुर्वेद तो भारत की ही देन हैं और यह सब संस्कृत व हिन्दी में लिखे गये हैं। हमारा इतिहास हिन्दी में ही लिखा गया है फिर उसे हम दूसरी भाषा में क्यों सीखना चाहते हैं? गीता को संस्कृत और हिन्दी में पढ़ने में जितने आनन्द की अनुभूति होति है क्या उतनी अंग्रेजी में होगी?
मैं अपना अनुभव बताती हूँ कि मैंने कुछ साल पहले एक कोर्स किया "भारत का सौन्दर्य शास्त्र"। इसके लिये गंगा शोध प्रबन्ध पर काम किया। जब प्रोजेक्ट रिपोर्ट बनाने का समय आया तो सभी ने रिपोर्ट अंग्रेजी में बनाई और मैंने हिन्दी में। सभी प्रोफेसरों ने मना किया कि हिन्दी में रिपोर्ट मान्य नहीं होगी। मैं अपनी बात पर अड़ी रही। इस पर उन्होंने मेरी बात मान ली और मेरे लिये एक हिन्दी के प्राध्यापक का प्रबन्ध किय गया। हालांकि वह प्राध्यापक मराठी थे तो उन्हें मेरी हिन्दी पूरी तरह समझ नहीं आई और मुझे अपेक्षानुरूप कम नम्बर दिये गये। लेकिन मुझे इस बात की खुशी है कि मैंने अपना कार्य हिन्दी में ही किया। इसके साथ ही मैं इण्डियन मर्चेन्ट चैम्बर की भी अध्यक्ष रही तो मैंने उसमें ९० प्रतिशत भाषण हिन्दी में ही दिये और आज भी मैं इसी बात का अनुसरण करती हूँ।
अत: मैं इतना ही कहना चाहती हूँ कि अपने अन्दर से हिन्दी के प्रति हीन भावना को समाप्त करें कि "हिन्दी जानने वाले की कोई उपयोगिता नहीं है और अंग्रेजी जानने से आप सुयोग्य हैं।" इंग्लैण्ड में तो घर में काम करने वाली नौकरानी भी अंग्रेजी बोलती है तो इसका अर्थ क्या है कि वह बहुत उच्च है? आप अपनी भाषा पर विश्वास रखें। क्योंकि हमारी भाषा ही हमारी संस्कृति की पहचान है, हमारी भाषा के समाप्त होने का अर्थ है भारत की संस्कृति का समाप्त हो जाना। इसलिये हिन्दी दिवस को सिर्फ एक दिन न मनाकर ये ध्येय रखें कि प्रत्येक दिन हिन्दी दिवस है और हमारा हर दिन हिन्दी के लिये समर्पित है।
हिन्दी   भाषा हिन्द  की   संस्कृति   का   आधार।
निज भाषा ही कर सके संस्कृति का उपकार॥

सोमवार, 20 सितंबर 2010

हिन्दी भाषा और राष्ट्रीयता : किरण बजाज

स्वतन्त्रता से २७ वर्ष पूर्व हमारे देश में जो राष्ट्रीयता की भावना थी जिसमें गांधी जी, लोकमान्य तिलक, सरदार वल्लभ भाई पटेल, सुभाष चन्द्र बोस, भगत सिंह, दादाभाई नौरोजी, आदि बहुत से देशभक्तों ने अपनी आहुति दी और जन-जन में देश प्रेम कि अलख जगाई. वह राष्ट्रीयता की भावना स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद (१९६५) श्री लाल बहादुर शास्त्री तक रही. उसके बाद राष्ट्र में बहुत सी विसंगतियां पैदा हो गईं और राष्ट्रीयता का जोश धीरे-धीरे कम होता चला गया.

सोचना यह है कि राष्ट्रीयता क्या है? यह किसी एक बात पर निर्भर नहीं करती है. राष्ट्रीयता का मतलब है राष्ट्र के प्रति अद्भुत प्रेम, समर्पण की भावना, राष्ट्र की प्रत्येक वस्तु, नागरिक, प्रकृति और धरोहर से प्रेम एवं सबसे ज्यादा राष्ट्र की भाषा और संस्कृति के प्रति निष्ठा क्योंकि भाषा और संस्कृति आपस में जुडे. हैं.

राष्ट्र भाषा हिन्दी के लिये बहुत से स्वतन्त्रता सेनानी, साहित्यकार, पत्रकार और लेखकों ने महत्वपूर्ण कार्य किया है. परन्तु स्वतन्त्रता के बाद हिन्दी का प्रयोग संसद जगत से लेकर मनोरंजन, व्यापार और शिक्षा जगत तक बहुत कम हो गया है. छोटे बच्चों को लोरी, हिन्दी की कविता और गीत सुनाये जाते थे. जिसका स्थान अंग्रेजी की ’ट्विंकिल ट्विंकिल लिटिल स्टार’ ने ले लिया है. गम्भीर चिंता का विषय यह है कि अंग्रेजी के प्रयोग के साथ-साथ हमारी भावना में हिन्दी के प्रति हीनता व उदासीनता की दीमक लग गई है. "२ फ़रवरी १८३५ में लार्ड मैकाले ने भारत भ्रमण करने के बाद इंग्लैंड की संसद में भाषण देते हुए कहा कि भारत की रीढ़ की हड्डी बडी मजबूत है. अगर हमें भारत पर विजय पानी है तो सबसे पहले उसे तोड़ना होगा और हमारी संस्कृति के प्रति लुभाना होगा जो कि बहुत आसान है." रीढ़ की हड्डी से उनका अभिप्राय हमारी भाषा और संस्कृति से था.

अगर हम यह बात समझ रहे हैं कि हमारी भाषा और संस्कृति पर बहुत चालाकी से चोटें हो रही हैं तो यह जरुरी है कि बहुत जोरदार तरीके से हर स्तर पर समीक्षा की जाये और वह बाधायें जो हमारे सामने आकर हमें गिराने का भरसक प्रयास कर रही हैं उसका डटकर सामना किया जाये. मजेदार बात यह है कि राजभाषा हिन्दी के साथ इतने अन्याय होने के बावजूद वह जिस तरह आगे बढ़ रही है अगर उसे वैज्ञानिक ढंग से समझ कर उसका प्रसार किया जाये और उन्नत किया जाये तो केवल भारत की राष्ट्रभाषा नहीं, अंतर्राष्ट्रीय भाषा बन जायेगी.

आज सूचना-तकनीकी और इलेक्ट्रानिक व प्रिन्ट मीडिया में क्रान्ति ला दी है और उन्होंने चाहे अपने फ़ायदे के लिये ही शुरुआत की हो किन्तु उसमें अनायास ही हिन्दी का बहुत बडा फ़ायदा अपने आप हो गया है. दूसरा मनोरंजन जगत ने हिन्दी को बहुत प्रसार व बल दिया है. हमेशा अमेरिका में रहने वाला भारतीय भी अपनी प्रेमिका को कोई हिन्दी गज़ल बोलना नहीं भूलता. विदेशी कम्पनियों ने अपने फ़ायदे के लिये अपनी सूचना विवरणिका को हिन्दी में भी मुद्रित कराया है. यह अलग बात है कि हम इस बात को पहचाने नहीं. इस तरह हिन्दी पढ़ने, लिखने व बोलने वाले के लिये भी नौकरी के अवसर पैदा हो गये हैं.

सरकार, शिक्षण संस्थायें और बुद्धिजीवी सब मिलकर कम से कम हिन्दी प्रान्तों में पूरी समझदारी से और पारदर्शिता के साथ योजना बनायें और हिन्दी प्रान्तों में सभी विषयों को अच्छी तरह हिन्दी में सिखायें. हिन्दी प्रान्तों मे जब हिन्दी सशक्त होगी तभी तो वह राष्ट्रभाषा बन सकेगी. इसका अर्थ यह नहीं है कि हमें अंग्रेजी नहीं सीखनी है. अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा बन चुकी है. उसके महत्व को नकारा नहीं जा सकता, इस कारण अंग्रेजी को भी द्वितीय भाषा के रूप में अच्छी तरह से सीखें. जिससे कि व्यवसाय आदि में उसका भावी पीढ़ी लाभ ले सके. किन्तु हिन्दी का हृदय से सम्बन्ध मां की गोदी से धरती की गोदी तक कम नहीं होना चाहिये और जन-जन की नस नस में हिन्दी का गौरव जब हम भरेंगे तब राष्ट्रीयता उपजेगी अन्यथा राष्ट्रीयता कोरा शब्द बनकर रह जायेगा.


हिन्दी की बिन्दी बनी माथे का श्रृंगार.
सारा भारत कर उथे हिन्दी का जयकार..         

जय हिन्द - जय हिन्दी