शुक्रवार, 24 सितंबर 2010

हिन्दी के प्रति हीन भावना ही हिन्दी के उत्थान में समस्या : किरण बजाज

मैं उन सभी देशवासियों और हिन्दी भाषियों को प्रणाम करती हूँ जो हिन्दी की गरिमा को बनाये रखने में अपना अमूल्य योगदान दे रहे हैं। मेरे विचार में देश की महत्ता और प्रगति उसके भौगोलिक क्षेत्र पर नहीं बल्कि उसकी प्रकृति और संस्कृति पर निर्भर करती है। भाषा संस्कृति का ही एक रूप है।
हिन्दी की सम्पन्नता का अन्दाजा तो इसी से लगाया जा सकता है कि भारत में २८ राज्य हैं और सभी राज्यों की अलग-अलग भाषा व बोलियाँ हैं लेकिन सब भाषाओं का आधार हिन्दी है। हिन्दी पूरे भारतवर्ष को जोड़ती है। हिन्दी भाषा की ग्राह्यता इतनी है कि उसमें अन्य भाषाओं यथा - उर्दू, अंग्रेजी, अरबी, फ़ारसी आदि भाषाओं के शब्द होने के बाद भी वह इस तरह इसमें जुड़ गये हैं कि वह हिन्दी भाषा के ही लगते हैं तो हम कैसे कह सकते हैं कि हमारी भाषा समृद्ध नहीं है?
मैं मानती हूँ कि अंग्रेजी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सम्प्रेषण के लिये उपयुक्त भाषा है। इसके लिये आप अंग्रेजी सीखें लेकिन हिन्दी को अपने व्यवहार, बोलचाल अथवा जीवौ से अलग न करें। हिन्दी भाषा के लिये सबसे बड़ी समस्या है अंग्रेजी सीखने की लोलुपता और हिन्दी के प्रति उदासीनता एवं हीन भावना। हिन्दी हमें हमारी संस्कृति और देश्प्रेम का बोध कराती है। इसका एक उदाहरण यह है कि यदि हम अमेरिका या कनाडा जायें और वहाँ काफी समय बिताने के बाद जब भी कोई हिन्दी भाषी मिल जाता है तो हृदय गदगद हो जाता है। जानते हैं ऐसा क्यों होता है? क्योंकि हिन्दी आपको आपकी भारतीयता की याद दिलाता है, हिन्दी से हमारा जुड़ाव आत्मा से है।
लेकिन जब हमारे भारत में ही हिन्दी का विरोध होता है, हिन्दी का तिरस्कार होता है, उसकी उपेक्षा होती है तो बहुत पीड़ा होती है। हम हिन्दी का विरोध करते हैं जो कि हमारी है तो अंग्रेजी का विरोध क्यों नहीं करते? क्या कोई बच्चा अपनी माँ को छोड़कर दूसरे की माँ की गोद में बैठता है? भले ही उसकी माँ काली, मोटी या कुरूप हो? तो फिर हम ये मूर्खता क्यों कर रहे हैं?
आज हर व्यक्ति अपने बच्चे को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ाना चाहता है और विद्यालयों में भी सभी विषय अंग्रेजी में ही पढ़ाये जाते हैं लेकिन आज के स्कूलों में शिक्षा का स्तर इतना गिर गया है कि वह स्कूल तो अंग्रेजी माध्यम के खोले जाते हैं और उनकी प्रधानाचार्या ही अंग्रेजी नहीं बोल सकतीं, ये कितना हास्यास्पद है। जो विषय हम अपनी भाषा में पढ़ सकते हैं उसे दूसरी भाषा में क्यों पढ़ें? आज गणित व आयुर्वेद भी लोग अंग्रेजी भाषा में सीखते हैं जबकि गणित और आयुर्वेद तो भारत की ही देन हैं और यह सब संस्कृत व हिन्दी में लिखे गये हैं। हमारा इतिहास हिन्दी में ही लिखा गया है फिर उसे हम दूसरी भाषा में क्यों सीखना चाहते हैं? गीता को संस्कृत और हिन्दी में पढ़ने में जितने आनन्द की अनुभूति होति है क्या उतनी अंग्रेजी में होगी?
मैं अपना अनुभव बताती हूँ कि मैंने कुछ साल पहले एक कोर्स किया "भारत का सौन्दर्य शास्त्र"। इसके लिये गंगा शोध प्रबन्ध पर काम किया। जब प्रोजेक्ट रिपोर्ट बनाने का समय आया तो सभी ने रिपोर्ट अंग्रेजी में बनाई और मैंने हिन्दी में। सभी प्रोफेसरों ने मना किया कि हिन्दी में रिपोर्ट मान्य नहीं होगी। मैं अपनी बात पर अड़ी रही। इस पर उन्होंने मेरी बात मान ली और मेरे लिये एक हिन्दी के प्राध्यापक का प्रबन्ध किय गया। हालांकि वह प्राध्यापक मराठी थे तो उन्हें मेरी हिन्दी पूरी तरह समझ नहीं आई और मुझे अपेक्षानुरूप कम नम्बर दिये गये। लेकिन मुझे इस बात की खुशी है कि मैंने अपना कार्य हिन्दी में ही किया। इसके साथ ही मैं इण्डियन मर्चेन्ट चैम्बर की भी अध्यक्ष रही तो मैंने उसमें ९० प्रतिशत भाषण हिन्दी में ही दिये और आज भी मैं इसी बात का अनुसरण करती हूँ।
अत: मैं इतना ही कहना चाहती हूँ कि अपने अन्दर से हिन्दी के प्रति हीन भावना को समाप्त करें कि "हिन्दी जानने वाले की कोई उपयोगिता नहीं है और अंग्रेजी जानने से आप सुयोग्य हैं।" इंग्लैण्ड में तो घर में काम करने वाली नौकरानी भी अंग्रेजी बोलती है तो इसका अर्थ क्या है कि वह बहुत उच्च है? आप अपनी भाषा पर विश्वास रखें। क्योंकि हमारी भाषा ही हमारी संस्कृति की पहचान है, हमारी भाषा के समाप्त होने का अर्थ है भारत की संस्कृति का समाप्त हो जाना। इसलिये हिन्दी दिवस को सिर्फ एक दिन न मनाकर ये ध्येय रखें कि प्रत्येक दिन हिन्दी दिवस है और हमारा हर दिन हिन्दी के लिये समर्पित है।
हिन्दी   भाषा हिन्द  की   संस्कृति   का   आधार।
निज भाषा ही कर सके संस्कृति का उपकार॥

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